Punjab Ka Sach Newsporten/ NewsPaper: शहीदे आजम व उसकी छवि

Wednesday, July 14, 2010

शहीदे आजम व उसकी छवि

जब दिल्ली में बैठे हुक्मरान कहते हैं कि शहीदे आजम भगत सिंह हिंसक सोच के व्यक्ति थे, तो भगत सिंह को चाहने वाले, उनको आदर्श मानने वाले लोग दिल्ली के शासकों कोसने लगते हैं, लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि शहीदेआजम की छवि को उनके चाहने वाले ही बिगाड़ रहे हैं।

अभी कल की ही बात है, एक स्कूटर की स्पिटनी वाली जगह पर लगे एक टूल बॉक्स पर भगत सिंह की तस्वीर देखी, जो भगत सिंह के हिंसक होने का सबूत दे रही थी। यह तस्वीर हिन्दी फिल्म अभिनेता सन्नी दिओल के माफिक हाथ में पिस्टल थामे भगत सिंह को प्रदर्शित कर रही थी। इस तस्वीर में भगत सिंह को निशाना साधते हुए दिखाया गया, जबकि इससे पहले शहर में ऐसी तमाम तस्वीरें आपने देखी होंगी, जिसमें भगत सिंह एक अधखुले दरवाजे में पिस्टल लिए खड़ा है, जो शहीदे आजम की उदारवादी सोच पर सवालिया निशान लगती है। जब महात्मा गांधी जैसी शख्सियत भगत सिंह जैसे देश भगत पर उंगली उठाती है तो कुछ सामाजिक तत्व हिंसक हो उठते हैं, तलवारें खींच लेते हैं, लेकिन उनकी निगाह में यह तस्वीर क्यों नहीं आती, जो भगत सिंह की छवि को उग्र साबित करने के लिए शहर में आम वाहनों पर लगी देखी जा सकती हैं।

यहां तक मुझे याद है, या मेरा अल्प ज्ञान कहता है, शायद भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर केवल सांडरस को उड़ाया था, वो भी शहीद लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए, इसके अलावा किसी और हत्याकांड में भगत सिंह का नाम नहीं आया। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर फिर भगत सिंह की ऐसी ही छवि क्यों बनाई जा रही है, जो नौजवानों को हिंसक रास्ते की ओर चलने का इशारा कर रही हो। ऐसी तस्वीरें क्यों नहीं बाजार में उतारी जाती, जिसमें भगत सिंह को कोई किताब पढ़ते हुए दिखाया जाए। उसको एक लक्ष्य को हासिल करने वाले उस नौजवान के रूप में पेश किया जाए, जो अपने देश को गोरों से मुक्त करवाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा चुका है। भगत सिंह ने हिंसक एक बार की थी, लेकिन उसका ज्यादातर जीवन किताबें पढ़ने में गुजरा है। भगत सिंह किताबें पढ़ने का इतना बड़ा दीवाना था कि वो किताब यहां देखता वहीं से किताब कुछ समय के लिए पढ़ने हेतु ले जाता था। जब भगत सिंह को फांसी लगने वाली थी, तब भी वो किसी रूसी लेखक की किताब पढ़ने में व्यस्त थे, भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले ज्यादातर लेखकों का यही कहना है।

फिर भी न जाने क्यों पंजाब में भगत सिंह की उग्र व हिंसक सोच वाली तस्वीरों को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। पंजाब अपने बहादुर सूरवीरों व मेहमाननिवाजी के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है, लेकिन कुछ कथित उग्र सोच के लोगों के कारण पंजाब की साफ सुथरी छवि को ठेस लगी है, हैरत की बात तो यह कि बाहरी दुश्मनों को छठी का दूध याद करवाने वाला पंजाब अपने ही मुल्क में ब्लैकलिस्टड है, जिसके बारे में यहां के गृहमंत्री को भी पता नहीं।

हमारी राज्य सरकार, पानी की रॉल्यटी को लेकर पड़ोसी राज्यों से तू तू मैं मैं कर रही है, लेकिन वो भी उस पानी के लिए जो कुदरत की देन है, जिसमें पंजाब सरकार का कुछ भी योगदान नहीं, ताकि आने वाले चुनावों में लोगों को एक बार फिर से मूर्ख बनाया जाए कि हमारा पानी के मुद्दे पर संघर्ष जारी है। यह सरकार पंजाब को खुशहाल, बेरोजगारी व भुखमरी मुक्त राज्य क्यों नहीं बनाने की तरफ ध्यान दे रही, कल तक बिहार को सबसे निकम्मा राज्य गिना जाता था, लेकिन वहां हो रहा विकास बिहार की छवि को राष्ट्रीय स्तर पर सुधार रहा है, मगर पंजाब सरकार राज्य पर लगे ब्लैकलिस्टड के धब्बे को हटाने के लिए यत्न नहीं कर रही, यह धब्बा भगत सिंह पर लगे हिंसक सोच के व्यक्तित्व के धब्बे जैसा है, जिसको सुधारना हमारे बस में है। जितना क्रांतिकारी साहित्य भगत सिंह ने पढ़ा था, उतने के बारे में तो उनके प्रशंसकों ने सुना भी नहीं होगा। शर्म से सिर झुक जाता है, जब भगत सिंह की हिंसक तस्वीर देखता हूं, जिसमें उसके हाथ में पिस्टल थमाया होता है। चित्रकारों व अन्य ग्राफिक की दुनिया से जुड़े लोगों से निवेदन है कि भगत सिंह की उस तस्वीर की समीक्षा कर देखे व उस तस्वीर को गौर से देखें, जिसमें वो लाहौर जेल के प्रांगण में एक खटिया पर बैठा है, एक सादे कपड़ों में बैठे हवलदार को कुछ बता रहा है, क्या उसके चेहरे पर कहीं हिंसा का नामोनिशान नजर आता है। अगर भगत सिंह हिंसक सोच का होता तो दिल्ली की असंबली में बम्ब फेंककर वो धुआं नहीं फैलाता, बल्कि लाशों के ढेर लगाता, लेकिन भगत सिंह का एक ही मकसद था, देश की आजादी, सोए हुए लोगों को जगाना, लेकिन मुझे लगता है कि सोए हुए लोगों को जगाना समझ में आता है, लेकिन उन लोगों को जगाना मुश्किल है, जो सोने का बहाना कर रहे हैं, उस कबूतर की तरह जो बिल्ली को देखकर आंखें बंद कर लेते है, और सोचता है कि बिल्ली चली गई। भगत सिंह जैसे शहीदों ने देश को गोरों से तो आजाद करवा दिया, लेकिन गुलाम होने की फिदरत से आजाद नहीं करवा सके। भगत सिंह जैसे सूरवीरों ने अपनी कुर्बानी राष्ट्र के लिए दी, ना कि किसी क्षेत्र, भाषा व एक विशेष वर्ग के लिए, लेकिन सीमित सोच के लोग, उनको अपना कहकर उनका दायरा सीमित कर देते हैं, जबकि भगत सिंह जैसे लोग यूनीवर्सल होते हैं। भगत सिंह की बिगड़ती छवि को बचाने के लिए वो संस्थाएं आगे आएं, जो भगत सिंह पर होने वाली टिप्पणी को लेकर मारने काटने पर उतारू हो जाती हैं।

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