आमदन अठन्नी, खर्च रुपया के कारण नगर निगम की आर्थिक स्थिति बेहद बुरी होती जा रही है। नौबत यहां तक आ गई है कि जमीन बेचकर शहर में विकास कार्य करने की योजना बनाई जा रही है। आखिर ऐसे सरकारी जमीन बेचकर कब तक नगर निगम अपनी आर्थिक स्थिति को जग जाहिर होने से बचा रहेगा। अगर निगम निगम आर्थिक मंदी से उभरना चाहता है तो उसको कारगार योजनाएं बनानी होंगी, जो फाइलों की परतों में दबकर न बैठी रहें। कल जनरल हाऊस की मीटिंग के दौरान सॉलिड वेस्ट विकास का मुद्दा सिर्फ इसलिए दबकर रह गया, क्योंकि निगम इसको मुकम्मल करने के लिए जमीन बेचकर धन जुटाने की बात कर रहा था, जिसका कुछ पार्षदों ने विरोध कर दिया। विरोध पूरी तरह जायजा भी है, जायादाद बेचकर घर चलाने से बेहतर है कि आमदनी के रिसोर्स पैदा किए जाएं। अगर नगर निगम के पास कोई अर्थ शास्त्री नहीं तो शहर में से किसी भी अर्थ शास्त्री से आमदन बढ़ाने के लिए कोई भी ठोस मंत्र लिए जा सकते हैं। इतना ही नहीं, अन्य विकासशील निगमों से प्रेरणा ली जा सकती है। जैसे कल जनरल हाउस की मीटिंग के दौरान कुछ पार्षदों ने कहा कि लुधियाना के पार्षद बड़े गर्व से कहते हैं कि उनके वार्डों में चार करोड़ रुपए लगे हैं, तीन करोड़ लगे हैं। लेकिन शायद बठिंडा के नगर निगम में ऐसा कोई पार्षद नहीं जो सीना ठोक कर कह सके कि उसने विकास कार्यों के लिए लाखों रुपए खर्च किए हैं। नगर निगम को अन्य विकासशील निगमों का अध्यन करना चाहिए। जब खुद को कुछ समझ न पड़ रहा हो तो पड़ोसी को देखकर कुछ बेहतर करने का विचार किया जा सकता है। अभी कल ही कोलकाता नगर निगम ने शहर में पातलू कुत्ते रखने के लिए लाइसेंस अनिवार्य कर दिया है, जिससे नगर निगम की आदमनी में इजाफा होगा। यहां बठिंडा नगर निगम कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण विकास कार्य न करने में असमर्थता जता रहा था, वहीं कोलकाता लावारिस कुत्तों की बढ़ रही जनसंख्या को रोकने के लिए व अपनी आमदनी में इजाफा करने पर विचार कर रहा था। शहर के पॉश इलाकों में ऐसा कोई घर नहीं होगा, यहां महंगे महंगे पालतू कुत्ते न हो, जिनकी खुराक पर हजारों रुपए महीने भर में खर्च कर दिए जाते हैं। वो लोग अपने इन पालतू जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए लाइसेंस व्यवस्था जैसी व्यवस्था को कभी भी नहीं गंवाएंगे, लेकिन इसके लिए नगर निगम को पहले जागरूकता अभियान चलाना होगा। आर्थिक मंदी से उभरने का एक बढ़िया तरीका पार्षदों ने भी तो पेश किया था कि सरकार से आर्थिक सहायता मांगी जाए, लेकिन सवाल उठता है बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? सोचने वाली बात है कि सत्ता में कौन है? और नगर निगम के शीर्षपदों पर कौन हैं? स्थानीय किसी भी नेता में दम नहीं कि अपनी ही सरकार के विरुद्ध दो शब्द कह सके, क्योंकि सब कुछ तो उनके रहमोकर्म से चल रहा है। हालांकि कोई भी सरकार इन लोगों के बिना अधूरी है, अधूरी ही नहीं बल्कि सरकार का अस्तित्व नहीं। जनता, उनके प्रतिनिधियों ने अपने दायित्व को समझ लिया, तब सत्ता के नशे में चूर लोगों को हकीकत का आईना नजर आ जाएगा, लेकिन जब तक जनता व उसके प्रतिनिधि सोए हुए हैं, तब तक सत्ता में बैठे लोग चम्म की जूतियां चलाएंगे, और आम आमदनी सिर्फ नगर निगम व नगर पालिकाओं द्वारा रोए जाने वाले आर्थिक मंदी के रोने को सुनकर फिर से अपने कार्य में मस्त हो जाएगा, जो उसकी आजीविका से जुड़ा हुआ है, जो उसकी दिनचर्या का हिस्सा है। इतना ही नहीं, लोगों की तरफ खड़े अपने करोड़ों को नगर निगम वसूल कर पाने में असमर्थ है। अगर निगम लोगों से अपना पैसा वसूल के लिए कारगार योजनाएं ईजाद कर ले तो हो सकता है कि वेंटीलेटर का सहारा ले रहा नगर निगम एक बार फिर से प्राकृतिक हवा का आनंद मान सके। इसके अलावा अगर नगर निगम नक्शे पास करवाने की व्यवस्था को सुचारू व सरल ढंग से चलाए तो लोग पतली गली से होने की बजाय निगम की तरफ सीधे रुख करेंगे, लेकिन इसके लिए नगर निगम लालफीता शाही मुक्त, रिश्वतखोरी मुक्त सिस्टम स्थापित करना होगा। अब तो नगर निगम में सुविधा केंद्र का निर्माण भी किया जा रहा है, लेकिन सवाल फिर वो ही उठता है कि सुविधा केंद्र लोगों को सुविधाएं दे पाएंगा या फिर सरकारी दफ्तरों की तरह असुविधाओं के जननी बनकर रह जाएगा।
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16 घंटे पहले