Punjab Ka Sach Newsporten/ NewsPaper: संपादकीय
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Saturday, July 10, 2010

गुटबाजी के बीच बटी भाजपा को चाहिए तारनहार

बठिंडा। भारतीय जनता पार्टी के अंदर की गुटबाजी किसी से छिपी नहीं है, फिलहाल इसमें जिला बठिंडा की इकाई भी इससे अछूती नहीं रही है। आपसी गुटबाजी और दल में विभाजित भाजपा के नेता अपने हितों को साधने के लिए एक दूसरे पर आरोप जड़ने में लगे हैं। भाजपा की लडा़ई की स्थिति यह है कि एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए वह मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। इस हालत से भी भयावह स्थति यह है कि  वर्तमान में  भाजपा के सदस्यों व पदाधिकारियों में आपसी तालमेल ही नहीं है, इसका ताजा उदाहरण वर्तमान में भाजपा की तरफ से घोषित ट्रेडिग सेल के पदाधिकारियों के बारे में स्थानीय नेताओं की किसी तरह की जानकारी न होना है। एक तरफ इस सेल का प्रदेश संयोजक मोहनलाल गर्ग को बनाया गया है लेकिन स्थानीय नेता इस तरह के सेल का गठन होने से ही इंकार कर रहे हैं। जबकि मोहन लाल को २३ जून को इस सेल का प्रदेश संयोजक बनाया था जिसकी बकायदा घोषणा जालंधर में आयोजित भाजपा बैठक में की गई थी। 
इस बाबत गुटबाजी का आलम यह है कि जिला भाजपा में सक्रिय चार गुटों में जिला शहरी प्रधान श्यामलाल बांसल को पदमुक्त करना व बचाना है। इसी रणनीति के तहत सभी गुट अपना प्रधान बनाने के लिए जहां पार्टी की तरफ से उच्च स्तर पर लिए फैसलों को मानने से इंकार कर रहे हैं वही हाईकमान के पास एक दूसरे की शिकायते सरेआम करने में लगे हैं। गौरतलब है कि एक साल पहले पूर्व भाजपा शहरी प्रधान नरिंदर मित्तल को हाईकमान के खिलाफ मोर्चा खोलने पर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। इसके बाद शहर में धन संपदा से संपन्न प्रधान के तौर पर श्यामलाल बांसल को चुना गया। वर्तमान में भाजपा के अंदर बांसल की कारगुजारी को लेकर असंतोष तीन गुट जता रहे हैं जबकि बांसल का समथर्न करने वाला एक गुट उनके बचाव में चल रहा है। अब जो गुट उन्हें हटाने की बात करता है उसके खिलाफ प्रधान गुट अपनी मुहिम शुरू कर देता है। इसमें देखा जाए तो वतर्मान में नगर निगम में डिप्टी मेयर तरसेम गोयल, भाजपा के पुराने नेता परमिंदर गोयल, नगर सुधार ट्रस्ट के पू्र्व चेयरमैन मोहन लाल गर्ग, नगर सुधार ट्रस्ट के वतर्मान चेयरमैन अशोक भारती जैसे नेता अपना प्रभुत्व जमाने का प्रयास कर रहे हैं।
 इन लोगों के पास एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए बेतुके तर्क भी बहुत है। मसलन एक हारा एमसी ट्रस्ट का चेयरमैन कैसे बना दिया, एक हारा एमसी ट्रेड विंग का संयोजक कैसे बनाया आदि। इसके साथ ही कुछ भाजपा नेता इस तरह के भी है जिन्हे नई जिला इकाई में स्थान नहीं दिया तो उन्होंने बगावती तेवर दिखाने के लिए प्रधान विरोधी गुटों को संरक्षण देने के साथ उन्हें भड़काने का काम शुरू कर रखा है। फिलहाल इस तरह की स्थित से गुजर रही भाजपा अपनी नैया कैसे पार लगाएगी समझ से परे है। भाजपा में हालात यह है कि केंद्रीय समिति की तरफ से मंहगाई के खिलाफ बंद सफल बनाने के आदेश को भी स्थानीय कुछ नेताओं ने मानने से इंकार कर दिया और बंद वाले दिन घरों में दुबक कर बैठे रहे। एक तरफ भाजपा के नेता गुटबाजी की किसी संभावना से इंकार कर रहे हैं वही अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ लोग मीडिया में खबरे उछालने के लिए ऐडी़ चोटी का जोर लगाते हैं। 
इसमें दूसरे को कैसे नीचा दिखाना है यह कला इन नेताओं को भलीभांती आती है। फिलहाल मैं तो इन भाजपा नेताओं को एक ही सलाह दूंगा कि अगर मन की कसक निकालनी है तो खुले मैदान में आ जाओं,  आपने पहले भी तो हाईकमान पर भ्रष्ट्रचार के आरोप लगाने के लिए मान्नीय नरिंदर मित्तल को बली का बकरा बनाया है, बेचारों को भाजपा से बाहर निकलवाने के बाद कभी उनका हाल तक पूंछने नहीं गए अब जब आप के साथ  भेदभाव हो रहा है तो परदे के पीछे छिपकर तीर चला रहे हो? वीर हो तो नरिंदर मित्तल बन जाओं और मन की भडा़स जमकर निकाल लो। कम से कम इस तरह की घुटन से तो छुटकारा मिलेगा। ऐसा नहीं कर सकते तो पहले ही हासिये पर पहुंच चुकी भाजपा का कुछ ख्याल कर उसे मजबूत करने की तरफ ध्यान दो। हाईकमान भी इस हालात में पहुंच चुकी जिला इकाई को कोई तारनहार दे दे ताकि नेतृत्व वहीन भाजपा में नई जान डाली जा सके। 
-हरिदत्त जोशी    

Tuesday, July 6, 2010

औरतों के हक से खिलवाड़

एक मजबूत जनतंत्र में महिलाओं के मुद्दे को कितनी आसानी से समुदाय के कर्णधारों के हवाले छोड़ दिया गया। उन्हें आज तक बराबरी का पूर्ण नागरिक अधिकार क्यों नहीं मिल पाया, जिसमें वे अपने मसले संविधान प्रदत्त कानूनों के मातहत निपटाएं। आजादी के 62 साल बाद भी यह स्थिति क्यों बनी हुई है। समुदाय विशेष के धर्मगुरुओं, मौलवियों या कर्णधारों के हाथों उसके सदस्यों के भविष्य का फैसला करने का अधिकार होना चाहिए, यह मांग तो खाप पंचायतों की भी है कि वे अपनी परंपरानुसार कानून का इस्तेमाल कर सकें। ये खाप पंचायतें और समुदाय आधारित संस्थाएं- जो धार्मिक वैधता भी हासिल होने का दावा करती हैं, पहले से ही महिलाओं पर नियंत्रण की ढेरों नीतियां और नियम बनाए हुए हैं। सरकार और प्रशासन के लोग ऐसे मामलों में आसानी से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, यह कह कर कि यह धार्मिक मामला है। हाशिए के सभी लोगों के लिए जिसमें महिलाएं भी हैं, मुक्तिदायी कानूनों की जरूरत है। ये मुक्तिदायी कानून सभी को बराबर का हक दें और समुदायों की मनमानी नहीं चलने पाए। महिलाएं सर्वप्रथम एक व्यक्ति, एक नागरिक हों न कि एक समुदाय या धर्मविशेष की सदस्य। ध्यान देने लायक बात है कि भारत जैसे बहुधर्मीय मुल्क में ही नहीं सऊदी अरब जैसे मुस्लिम बहुल मुल्क में भी मुस्लिम महिलाओं के बीच नई जागृति आने के संकेत मिल रहे हैं। पिछले दिनों खबर आई थी कि किस तरह सऊदी में धार्मिक पुलिस के खिलाफ बढ़ते गुस्से का असर उजागर हो रहा है। पता चला कि एक महिला ने तो एक धार्मिक पुलिस पर गोली चलाई थी।
दरअसल, जबरन लोगों को काबू में रखने की एक सीमा होती है और देर-सवेर इसका प्रतिरोध होता ही है। वह प्रतिरोध कितना सुनियोजित, मजबूत और प्रभावी होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि लोग कितने संगठित होंगे।

Monday, July 5, 2010

हमें महंगाई से बचाने के लिए बंद कितना सार्थक

हरिदत्त जोशी
बठिंडा। दस साल से मंहगाई निरंतर बढ़ रही है, सरकार के साथ विपक्ष लंबे समय तक चुप्पी साधकर बैठा रहा लेकिन आज एकाएक भाजपा ने दूसरे दलों के साथ भारत बंद की घोषणा कर दी। इससे पहले भाजपा के साथ पूरे विपक्ष की चुप्पी यूपीए सरकार की मनमानी का समर्थन करते रहे जिसका नतीजा यह रहा है कि दाले बीस रुपये से एक सौ बीस रुपये तक पहुंच गई और रसोई गैस का सिलेंडर दो सौ से पौने चार सौ तक पहुंच गया। अगर समय पर यूपीए सरकार की मनमानी रोकी होती तो देश की जनता इतनी बेहाल नहीं होती। लोकतंत्र में संघर्ष और अपना विरोध जताने का सभी को अधिकार है लेकिन इस अधिकार की भी कुछ  सीमाएं है जिसे लाघकर आप किसी का हित नहीं कर सकते हैं। हाल में आप और हमको महंगाई से बचाने के  लिए जनता के  हितैषी आज सडक़ों पर उतर आए हैं। उनका कहना है कि अगर आज सारी दुकानें बंद रहें और गाड़ियां नहीं चलें तो महंगाई कम हो जाएगी। इसके  लिए वे रेलवे स्टेशनों और सड़कों पर रुकावटें खड़ी कर रहे हैं। उनकी कोशिश है कि आज देश भर में कोई भी पहिया न चले। जो लोग इस बात को नहीं मानते कि बंद आयोजित करने से कोई फर्क  पडता है, उनको ये सबक सिखाने के लिए तैयार खडे़ हैं। अब इन नौसखियों को कौन समझाएं कि लोगों को आंदोलन के लिए भड़काने वाले उनके दिग्गज सरकार के साथ मिले हुए है। सरकार की हर गतिविधि और निर्देशों में उनकी सहमती होती है अब आगे कुछ  राज्यों में चुनाव हा और जनता को बेवकूञ्फ बनाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं जो न तो देश के हित में है और न ही लोगों के हित में है। टेलीविजन खोलकर देखों तो खबरे आ रही है कि प्रदर्शनकारियों ने देश भर में हो हल्ला मचाया ,उन लोगों को थप्पड़ मारे जो ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश कर रहे थे। कहीं-कहीं वे बसों पर पथराव कर रहे हैं, कहीं-कहीं टायरों की हवा निकाल रहे हैं ताकि सडक़ों पर यातायात रुक जाए। पंजाब में तो बस सेवाएं ही बंद कर दी, इसमें लाखों लोग आवागमन नहीं कर पा रहे हैं। हजारों लोग ऐसे है जो अपना इलाज करवाने के लिए सीएमसी, डीएमसी या फिर पीजीआई में जाते हैं। अगर इन लोगों का शारीरिक नुकसान होता है तो इसकी जिम्मेवारी किसकी होगी। क्या मंहगाई रोकने के इस ड्रामे से मंहगाई रूक जाएगी, कभी नहीं। न तो यूपीए सरकार गिरेगी और न ही मंहगाई रूपी दानव कम होगा।  इन सभी दलों के नेता अभी घरों में सुस्ता रहे हैं और टीवी चैनलों पर ये तस्वीरें देखकर हर्षित हो रहे हैं। वाह, क्या कमाल कर दिया। सडक़ों पर गाडिय़ों की कतार लग गई है। लोग परेशान हैं कि आगे भी नहीं जा सकते, पीछे भी नहीं। लेकिन यह तो इनकी सजा है जो इन हितैषियों ने उनके  लिए मुकर्रर की है। इन लोगों के डर से सभी लोग घरों में सिमट गए, स्कूल बंद हो गए। सड़कें  जाम हो गईं और मैं आपको गारंटी दे सकता हूं कि इस बंद से न महंगाई डरेगी न सरकार। तो ऐसे कितने भी बंद करा लो, यह यूपीए सरकार तो रहेगी और साथ में महंगाई भी रहेगी। लेकिन क्या यह जरूरी है कि महंगाई से परेशान जनता इस बंद नाम के तमाशे के कारण और परेशान हो।

Sunday, July 4, 2010

आखिर पीली पत्रकारिता के प्रोत्साहन के लिए कौन जिम्मेवार ?

हरिदत्त जोशी
आजकल सामान्य तौर पर सुनने को मिल जाता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आ गई है। पीली पत्रिकारिता निरंतर हावी हो रही है। पत्रकारिता लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का रुतबा खोने की कगार में खडी़ है। आखिर यह सब क्यों हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेवार है। इसका अवलोकन करना समय की जरूरत है। भौतिकवादी युग में लोगों की जरूरत और आकांशा भी निरंतर बढी़ है, देखादेखी हर इंसान पैसों से लबालब होना चाहता है। अब इसके लिए जायज और नायायज रास्ता अखि्तयार करना पडे़ तो वह करने को तैयार है।
पंजाब की बात करे तो पहले पहल राज्य में चलने वाले अखबार अपने प्रतिनिधियों को पैसा नहीं देते थे बिल्क उन्हें विज्ञापन से मिलने वाले कमिशन में से ही अपना खर्च निकालना होता था। अस्सी के दशक में पंजाब में आतंकवाद का दौर था ऐसे में व्यापार का बुरा हाल था और विज्ञापन हासिल करना इतना सुगम नहीं था, ऐसे में शुरू हुआ, पत्रकारों का खबर भेजने के लिए प्रयुक्त होने वाले साधनों का खर्च खबर प्रकाशित करवाने की दिलचस्पी रखने वाले लोगों से पैसा वसूल करने का धंधा। यह धंधा धीरे-धीरे हर अखबार के प्रतिनिधि ने करना शुरू कर दिया। जो आगे खबर प्रकाशित करने या फिर रोकने के नाम पर पैसे वसूली का धंधा बन गया। धीरे-धीरे पीली पत्रकारिता ने अपना असर दिखाना शुरू किया।
एक दशक पहले राज्य से बाहर के अखबारों ने पंजाब में पैर जमाए तो उन्होंने अखबार के प्रतिनिधियों को बेहतर वेतन देना शुरू कर दिया और इसके बाद इस धंधे (पीली पत्रकारिता) पर कुछ लगाम लगी लेकिन पत्रकारों के एक वर्ग ने इस धंधे को जारी रखा । हाल की घडी़ जिस तरह से हर अखबार का मलिक खबरों की मौलिकता से ज्यादा विज्ञापनों की तादाद व उससे बटोरे जाने वाले पैसे को अधिक महत्ता देने लगा है उसने पत्रकारिता के मूल्यों की कदर करने वाले पत्रकारों को निराश जरूर किया। मुझे याद है कुछ समय पहले पंजाब में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव,जिसमें अखबार के मालिकों से लेकर स्थानीय पत्रकारों में राजनितिक दलों से पैसे बटोरने की होड़ शुरू हुई, संपादक स्तर पर बडी़ डिलिंग हुई, दल की पूरी मुहिम करोडो़ में खरीदी गई, इसमें जिस दल ने ज्यादा पैसा दिया वह अखबारों में ज्यादा चमका, कई दलों की स्थिति तो ऐसी हो गई कि वह कई बडे़ अखबारों में छपने को तरसने लगे। यहां मेरा मकसद किसी अखबार विशेष या फिर समूह की नितियों को उजागर करना नहीं है बलि्क मैं पीली पत्रकारिता के लिए जाने-अनजाने तैयार होने वाले माहौल के बारे में अवगत करवाना चाहता हूं जब पत्रकार को अखबार का संपादक या फिर स्थानीय संवाददाता विज्ञापन के नाम पर जायज व नाजायज वसूली को कहता है तो वह आगे उसे दूसरों की जेब काटने से कैसे रोकेगा। यही नहीं इसके बाद खबरे बिकना संभाविक है। कई स्थानों में इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मिडिया के कुछ प्रतिनिधियों को ब्लैकमेलिंग करते पकडा़ गया। इससे पत्रकार व पत्रकारिता की बदनामी ही हुई है जिसने अखबारों की विश्वसनियता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है।
लोग अखबार को बिकाऊ माल कहने लगे है जो खासकर ऐसे वर्ग के लिए चिंताजनक है जो अभी भी पत्रकारिता के मूल्यों को पहचानते है और उनकी कदर करते हैं। पत्रकारिता पेशा सेवा के साथ एक बडी़ राष्ट्रीय जिम्मेवारी का हिस्सा है, जिसने लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बनकर उसकी नींव को मजबूत किया है। इस विश्वास को बनाए रखने की जिम्मेवारी हर राष्ट्र भक्त की बनती है जो इसमें पत्रकार भी अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकते हैं। आज इमानदारी से पत्रकारिता में आ रही गिरावट को रोकने के लिए चिंतन की जरूरत है। इसमें ऊपरी स्तर पर अखबार के मालिक से लेकर संपादक व निचले स्तर के कर्मचारी को विचार करना होगा। पत्रकारिता की शान इसके सम्मान और विश्वास के आधार पर टिकी है, अगर लोगों ने इसका सम्मान करने के साथ विश्वास करना छोड़ दिया तो अखबार एक पंपलेट बनकर रह जाएगा जिसे लोग देखते तो है पर विश्वास नहीं करते और रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं। 

Friday, June 25, 2010

देर से ही सही पत्रकारों ने नई पहल तो की


हरिदत्त जोशी
लंबे समय से बठिंडा जिले के पत्रकारों को एक मंच पर लाने के लिए प्रयास किए जा रहे थे  लेकिन इसमें हर बार असफलता ही हाथ लग रही थी। इसका विपरित प्रभाव यह पड़ रहा था कि पत्रकारों में एकता न होने से उनकी मांगों व समस्याओं को लेकर सरकार के साथ प्रशासन हमेशा से निरसता ही दिखाता रहा। यह बात अलग है कि जिले के पत्रकारों ने किसी भी पत्रकार बंधु पर आई बड़ी समस्या का एकजुटता दिखाकर हल निकाला है व एकता का परिचय दिया लेकिन यह सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल सका। हाल में एक समाचार काफी सुखद रहा जिसमें जिला बठिंडा के पत्रकारों की एक प्रेस क्लब गठित हो गई है। इस लब के गठन की खास बात यह रही है कि इसका प्रधान एक ऐसे व्यक्ति को बनाया गया है जो काफी सूझवान तो है वही सभी सामाचार पत्रों के प्रतिनिधियों में मान्य व सम्मानिय है। अंग्रेजी अखबार ट्रिब्यून के विशेष प्रतिनिधि एसपी शर्मा को बठिंडा प्रेस क्लब का प्रधान बनाया गया है। उनके नेतृत्व में प्रेस क्लब निरंतर आगे बढे़गा व पत्रकारों के हितों के साथ पत्रकारिता के मूल्य की रक्षा करेगा ऐसा मैं उम्मीद करता हूं। मैं बठिंडा के उन सभी पत्रकार बंधुओं से भी निवेदन करना चाहूंगा जो अब तक अह की झूठी जंग लड़ते रहे हैं व हमेशा प्रेस क्लब को गठन होने में रुकावट पैदा करते रहे हैं व इस सर्वमान्य नेतृत्व को अपना सहयोग देंगे। मैं उन सभी लोगों की भरसक सराहना करता हूं जिन्होंने बठिंडा प्रेस क्लब के गठन में अपना योगदान दिया व सर्वसम्मति बनाने के लिए माहौल तैयार किया है। बठिंडा में प्रेस क्लब बनाने की मांग आज की नहीं बल्कि पिछले कई दशकों से चल रही थी। ऐसा नहीं है कि यहां प्रेस क्लब का गठन नहीं हुआ बल्कि कई बार प्रेस प्रतिनिधि एक मंच पर इकट्ठा हुए लेकिन सिनियर, जूनियर या फिर नए पुराने के चक्कर में इस क्लब को उसके असल मुकाम तक पहुंचाने में सफल नहीं हो सके। मुझे याद है कि कुछ साल पहले प्रेस क्लब का गठन करने के लिए वरिष्ठ पत्रकार रणधीर सिंह गिलपत्ती के नेतृत्व में प्रयास शुरू हुए थे। इसमें मेरे सभी पुराने सभी अखबार के साथियों ने पूरा सहयोग भी दिया, इसमें क्लब के संविधान से लेकर नए गठन को लेकर सहमति बन गई लेकिन एकाएक अह की जंग ने इस प्रयास को पूरा नहीं होने दिया। इसके बाद भी एक नहीं कई बार इस तरह के प्रयास होते रहे हैं लेकिन हर बार असफलता ही हाथ लगी। इस प्रयास में मैं बठिंडा की फोटोग्राफर एसोसिएशन की सराहना करना चाहूंगा जो पिछले दो साल से अधिक समय से सफलतापूर्वक काम कर रही है। उन्होंने हर कदम पर हर चुनौती का सामना करते हुए फोटोग्राफरों की समस्याओं को हल करवाया है व अपनी नई पहचान बनाई है। इस प्रयास का नतीजा ही है कि पत्रकार समूह के पत्रकारों ने बठिंडा प्रेस क्लब का गठन किया है। एक बार फिर से सभी पत्रकारों और प्रेस क्लब का नेतृत्व करने वाले पदाधिकारियों को मेरी शुभकामनाएं। हम उम्मीद कर सकते हैं कि यह संगठन एक नई किरण और उम्मीद पत्रकारिता के क्षेत्र में जगाने में सफल होगा। 

Saturday, June 19, 2010

पंजाब को इमानदारी से उठानी होगी पानी पर रियालटी की मांग

राज्य में पानी के साधन तो है लेकिन इसका समुचित लाभ नहीं मिल रहा
राज्य में पिछले डेढ़ दशक से पानी का मुद्दा अहम रहा है। सतलुज यमुना लिंक नहर के मुद्दों को पंजाब के साथ हरियाणा के सियासतदान पिछले तीन चुनावों से जोर शोर से उठा रहे हैं इसमें विभिन्न राजनीतिक दलों को लाभ भी मिलता रहे हैं। इसी गनीमत ही कहेंगे कि किसी भी राजनीतिक दल ने सत्ता संभालने के बाद इस गंभीर मसले पर जमीनी स्तर पर काम नहीं किया है। पूर्व कैञ्प्टन सरकार से इस मुद्दे को लेकर थोड़ा प्रयास जरूञ्र किए लेकिन वह भी केंञ्द्र में बनी उनकी कांग्रेस सरकार ने ही सफल नहीं होने दिया बल्कि उन पर दबाब बनाकर इसे ठंडे बस्ते में डलवा दिया। वर्तमान में राज्य में अगर कोई बड़ी समस्या है तो वह पानी है। किसान पानी के बिना परेशान है। मानसून के थोडे़ लेट होते ही खेतों में फसले सूखने लगती है। लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता है। गर्मियों के दिनों में तो शहरों के साथ गांवों में हाहाकार की स्थिति पैदा हो जाती है। राज्य में पानी के साधन है लेकिन उनका लाभ उसे नहीं मिल रहा है। फिलहाल काफी लंबे समय से पिटारे  में बंद पानी का मुद्दा एक बार फिर से पिटारे से बाहर है। डेढ़ साल बाद राज्य में संभावित विधानसभा चुनावों के चलते भी इस मुददे्‌ को अकाली एक बार फिर से जोरशोर से उठाना चाहते हैं। इसी के चलते पंजाब सरकार ने अब अन्य राज्यों को दिए जा रहे पानी पर रायल्टी लेने का मन बनाया है। अगर इसके दूरगामी पहलुओं पर गौर किया जाए तो इसे पूरी तरह गलत भी नहीं कहा जा सकता है। अगर राज्य सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता के साथ इमानदारी से काम करती है तो इसका फायदा मिलेगा व राज्य के लाखों किसानों को इसका लाभ मिलेगा।  सभी राज्यों में कोई न कोई प्राकृञ्तिक संपदा होती है जिसकी उसे रायल्टी मिलती है तो फिर पंजाब के  साथ ही भेदभाव क्यों हो। गत दिवस मुख्यमंत्री ने इस संबंध में शीर्ष स्तर पर एक बैठक की, जिसमें वरिष्ठ वकीलों, कई मंत्रियों के अतिरिक्त नदी जल विशेषज्ञ तथा सिंचाई विभाग के  प्रमुखों ने हिस्सा लिया। बैठक में इस संबंध में कानूनी लडाई लडने की रूञ्परेखा पर विचार किया गया। जाहिर है कि इस प्रकार की कोई मांग अथवा लडाई उन प्रदेशों को तो रास नहीं आएगी जो पंजाब का पानी मुफ्त में इस्तेमाल कर रहे हैं, किंतु इस मामले में पंजाब सरकार में शामिल शिरोमणि अकाली दल की सहयोगी भारतीय जनता पार्टी का सरकार का साथ देना यह साबित करता है इस मुद्दे पर पंजाब के  सभी दल दलीय भावना से ऊपर उठ कर एक स्वर में बात करेंगे। इस मामले में हालांकि कांग्रेस की तरफ से किसी तरह की प्रतिक्रञ्या नहीं आई है लेकिन शिअद को चाहिए कि वह इस लडाई में कांग्रेस की भी मदद ले क्योंकि केंद्र और पडोस के  दोनों राज्य हरियाणा तथा राजस्थान में कांग्रेस की ही सरकार है। यह संकेत जाना आवश्यक है कि यह कोई राजनीतिक मामला नहीं है बल्कि प्रदेश के  हितों से जुडा हुआ है। जब भी किसानों के  लिए किसी प्रकार की केंञ्द्रीय राहत की घोषणा की जाती है तो प्राय पंजाब की इस आधार पर अनदेखी कर दी जाती है कि इसके पास पर्याप्त पानी है और यह राज्य प्रथम हरित क्रञंति का अगुआ रहा है, किंतु जब पंजाब के  संसाधनों की बात होती है तो उसमें हिस्सा बांट दिया जाता है। पंजाब यदि अपना पानी अन्य राज्यों को दे रहा है तो क्या अन्य राज्यों का यह दायित्व नहीं बनता है कि वह इसके लिए कुछ अदा करें? पंजाब में कृषि बुरे दौर से गुजर रही है और राज्य में किसान आत्महत्या तक कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में राज्य को अपनी जायज मांग को उठाने का पूरा हक है और केंद्र को भी चाहिए कि वह पंजाब की मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करे और अन्य राज्यों पर पानी की रायल्टी देने के  लिए दबाव बनाए।

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