हरिदत्त जोशी
आजकल सामान्य तौर पर सुनने को मिल जाता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आ गई है। पीली पत्रिकारिता निरंतर हावी हो रही है। पत्रकारिता लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का रुतबा खोने की कगार में खडी़ है। आखिर यह सब क्यों हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेवार है। इसका अवलोकन करना समय की जरूरत है। भौतिकवादी युग में लोगों की जरूरत और आकांशा भी निरंतर बढी़ है, देखादेखी हर इंसान पैसों से लबालब होना चाहता है। अब इसके लिए जायज और नायायज रास्ता अखि्तयार करना पडे़ तो वह करने को तैयार है।
पंजाब की बात करे तो पहले पहल राज्य में चलने वाले अखबार अपने प्रतिनिधियों को पैसा नहीं देते थे बिल्क उन्हें विज्ञापन से मिलने वाले कमिशन में से ही अपना खर्च निकालना होता था। अस्सी के दशक में पंजाब में आतंकवाद का दौर था ऐसे में व्यापार का बुरा हाल था और विज्ञापन हासिल करना इतना सुगम नहीं था, ऐसे में शुरू हुआ, पत्रकारों का खबर भेजने के लिए प्रयुक्त होने वाले साधनों का खर्च खबर प्रकाशित करवाने की दिलचस्पी रखने वाले लोगों से पैसा वसूल करने का धंधा। यह धंधा धीरे-धीरे हर अखबार के प्रतिनिधि ने करना शुरू कर दिया। जो आगे खबर प्रकाशित करने या फिर रोकने के नाम पर पैसे वसूली का धंधा बन गया। धीरे-धीरे पीली पत्रकारिता ने अपना असर दिखाना शुरू किया।
एक दशक पहले राज्य से बाहर के अखबारों ने पंजाब में पैर जमाए तो उन्होंने अखबार के प्रतिनिधियों को बेहतर वेतन देना शुरू कर दिया और इसके बाद इस धंधे (पीली पत्रकारिता) पर कुछ लगाम लगी लेकिन पत्रकारों के एक वर्ग ने इस धंधे को जारी रखा । हाल की घडी़ जिस तरह से हर अखबार का मलिक खबरों की मौलिकता से ज्यादा विज्ञापनों की तादाद व उससे बटोरे जाने वाले पैसे को अधिक महत्ता देने लगा है उसने पत्रकारिता के मूल्यों की कदर करने वाले पत्रकारों को निराश जरूर किया। मुझे याद है कुछ समय पहले पंजाब में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव,जिसमें अखबार के मालिकों से लेकर स्थानीय पत्रकारों में राजनितिक दलों से पैसे बटोरने की होड़ शुरू हुई, संपादक स्तर पर बडी़ डिलिंग हुई, दल की पूरी मुहिम करोडो़ में खरीदी गई, इसमें जिस दल ने ज्यादा पैसा दिया वह अखबारों में ज्यादा चमका, कई दलों की स्थिति तो ऐसी हो गई कि वह कई बडे़ अखबारों में छपने को तरसने लगे। यहां मेरा मकसद किसी अखबार विशेष या फिर समूह की नितियों को उजागर करना नहीं है बलि्क मैं पीली पत्रकारिता के लिए जाने-अनजाने तैयार होने वाले माहौल के बारे में अवगत करवाना चाहता हूं जब पत्रकार को अखबार का संपादक या फिर स्थानीय संवाददाता विज्ञापन के नाम पर जायज व नाजायज वसूली को कहता है तो वह आगे उसे दूसरों की जेब काटने से कैसे रोकेगा। यही नहीं इसके बाद खबरे बिकना संभाविक है। कई स्थानों में इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मिडिया के कुछ प्रतिनिधियों को ब्लैकमेलिंग करते पकडा़ गया। इससे पत्रकार व पत्रकारिता की बदनामी ही हुई है जिसने अखबारों की विश्वसनियता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है।
लोग अखबार को बिकाऊ माल कहने लगे है जो खासकर ऐसे वर्ग के लिए चिंताजनक है जो अभी भी पत्रकारिता के मूल्यों को पहचानते है और उनकी कदर करते हैं। पत्रकारिता पेशा सेवा के साथ एक बडी़ राष्ट्रीय जिम्मेवारी का हिस्सा है, जिसने लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बनकर उसकी नींव को मजबूत किया है। इस विश्वास को बनाए रखने की जिम्मेवारी हर राष्ट्र भक्त की बनती है जो इसमें पत्रकार भी अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकते हैं। आज इमानदारी से पत्रकारिता में आ रही गिरावट को रोकने के लिए चिंतन की जरूरत है। इसमें ऊपरी स्तर पर अखबार के मालिक से लेकर संपादक व निचले स्तर के कर्मचारी को विचार करना होगा। पत्रकारिता की शान इसके सम्मान और विश्वास के आधार पर टिकी है, अगर लोगों ने इसका सम्मान करने के साथ विश्वास करना छोड़ दिया तो अखबार एक पंपलेट बनकर रह जाएगा जिसे लोग देखते तो है पर विश्वास नहीं करते और रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं।
पंजाब की बात करे तो पहले पहल राज्य में चलने वाले अखबार अपने प्रतिनिधियों को पैसा नहीं देते थे बिल्क उन्हें विज्ञापन से मिलने वाले कमिशन में से ही अपना खर्च निकालना होता था। अस्सी के दशक में पंजाब में आतंकवाद का दौर था ऐसे में व्यापार का बुरा हाल था और विज्ञापन हासिल करना इतना सुगम नहीं था, ऐसे में शुरू हुआ, पत्रकारों का खबर भेजने के लिए प्रयुक्त होने वाले साधनों का खर्च खबर प्रकाशित करवाने की दिलचस्पी रखने वाले लोगों से पैसा वसूल करने का धंधा। यह धंधा धीरे-धीरे हर अखबार के प्रतिनिधि ने करना शुरू कर दिया। जो आगे खबर प्रकाशित करने या फिर रोकने के नाम पर पैसे वसूली का धंधा बन गया। धीरे-धीरे पीली पत्रकारिता ने अपना असर दिखाना शुरू किया।
एक दशक पहले राज्य से बाहर के अखबारों ने पंजाब में पैर जमाए तो उन्होंने अखबार के प्रतिनिधियों को बेहतर वेतन देना शुरू कर दिया और इसके बाद इस धंधे (पीली पत्रकारिता) पर कुछ लगाम लगी लेकिन पत्रकारों के एक वर्ग ने इस धंधे को जारी रखा । हाल की घडी़ जिस तरह से हर अखबार का मलिक खबरों की मौलिकता से ज्यादा विज्ञापनों की तादाद व उससे बटोरे जाने वाले पैसे को अधिक महत्ता देने लगा है उसने पत्रकारिता के मूल्यों की कदर करने वाले पत्रकारों को निराश जरूर किया। मुझे याद है कुछ समय पहले पंजाब में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव,जिसमें अखबार के मालिकों से लेकर स्थानीय पत्रकारों में राजनितिक दलों से पैसे बटोरने की होड़ शुरू हुई, संपादक स्तर पर बडी़ डिलिंग हुई, दल की पूरी मुहिम करोडो़ में खरीदी गई, इसमें जिस दल ने ज्यादा पैसा दिया वह अखबारों में ज्यादा चमका, कई दलों की स्थिति तो ऐसी हो गई कि वह कई बडे़ अखबारों में छपने को तरसने लगे। यहां मेरा मकसद किसी अखबार विशेष या फिर समूह की नितियों को उजागर करना नहीं है बलि्क मैं पीली पत्रकारिता के लिए जाने-अनजाने तैयार होने वाले माहौल के बारे में अवगत करवाना चाहता हूं जब पत्रकार को अखबार का संपादक या फिर स्थानीय संवाददाता विज्ञापन के नाम पर जायज व नाजायज वसूली को कहता है तो वह आगे उसे दूसरों की जेब काटने से कैसे रोकेगा। यही नहीं इसके बाद खबरे बिकना संभाविक है। कई स्थानों में इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मिडिया के कुछ प्रतिनिधियों को ब्लैकमेलिंग करते पकडा़ गया। इससे पत्रकार व पत्रकारिता की बदनामी ही हुई है जिसने अखबारों की विश्वसनियता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है।
लोग अखबार को बिकाऊ माल कहने लगे है जो खासकर ऐसे वर्ग के लिए चिंताजनक है जो अभी भी पत्रकारिता के मूल्यों को पहचानते है और उनकी कदर करते हैं। पत्रकारिता पेशा सेवा के साथ एक बडी़ राष्ट्रीय जिम्मेवारी का हिस्सा है, जिसने लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बनकर उसकी नींव को मजबूत किया है। इस विश्वास को बनाए रखने की जिम्मेवारी हर राष्ट्र भक्त की बनती है जो इसमें पत्रकार भी अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकते हैं। आज इमानदारी से पत्रकारिता में आ रही गिरावट को रोकने के लिए चिंतन की जरूरत है। इसमें ऊपरी स्तर पर अखबार के मालिक से लेकर संपादक व निचले स्तर के कर्मचारी को विचार करना होगा। पत्रकारिता की शान इसके सम्मान और विश्वास के आधार पर टिकी है, अगर लोगों ने इसका सम्मान करने के साथ विश्वास करना छोड़ दिया तो अखबार एक पंपलेट बनकर रह जाएगा जिसे लोग देखते तो है पर विश्वास नहीं करते और रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं।
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