चंडीगढ़। दिल्ली हिंसा का असर कहें या लोकसभा सीटों का गणित, कृषि कानूनों के खिलाफ अगुवाई छिनने के बाद पंजाब में किसान संगठन नए सिरे से समर्थन जुटाने लगे हैं। 2 महीने से ज्यादा वक्त तक पंजाब के किसानों ने ही आंदोलन को शिखर तक पहुंचाया। फिर दिल्ली में हिंसा हुई और अचानक सारी कमान राकेश टिकैत के हाथों में चली गई। किसान आंदोलन में दिन-रात डटकर किसानों का साथ देने वाला पंजाब का युवा इससे नाखुश है। वो इसके पीछे पंजाब के किसान नेताओं की कमजोरी मान रहे हैं। खासकर, दिल्ली हिंसा व लाल किले पर केसरी झंडा लगाने के बाद किसान नेताओं के युवाओं से पल्ला झाड़ने की बात युवाओं को रास नहीं आ रही। यही वजह है कि किसान संगठन अब पंजाब में बैठकें, छोटी-छोटी रैलियां निकालने से लेकर राकेश टिकैत की तर्ज पर महापंचायत के जरिए समर्थन जुटाने के साथ लोगों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि आंदोलन वही चला रहे हैं। किसानी से इतर जो दूसरे संगठन आंदोलन के साथ में डटे थे, उनके जरिए भी पंजाब में लोगों को आंदोलन के लिए एकजुट रहने की अपील करवाई जा रही है। इस सबके बीच किसान आंदोलन की अगुवाई के बदले रूख को लेकर पंजाब में कई चर्चाएं चल रही हैं।
रणनीतिक तौर पर यह माना जा रहा......
- उत्तर प्रदेश से ज्यादा दबाव पड़ेगा केंद्र पर : उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं, जबकि पंजाब में सिर्फ 13 हैं। किसान नेता कहते हैं कि पंजाब में न ज्यादा सीटें हैं, न यहां BJP राजनीतिक तौर पर पावरफुल है और न उनकी सरकार है। यही वजह है कि अगर उत्तर प्रदेश इस आंदोलन में पूरी तरह शामिल हुआ तो केंद्र पर ज्यादा दबाव पड़ेगा। वहां लोस सीटें ज्यादा होने के साथ BJP की सरकार भी है। इसी वजह से राकेश टिकैत को आगे लगाने की रणनीति बताई जा रही है।
- पंजाब की छवि से मुक्ति की कोशिश: किसान आंदोलन के साथ शुरू से एक बात यह भी जुड़ी है कि यह पंजाब के ही किसानों का आंदोलन है। हालांकि इसमें हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड से किसान जुड़े, लेकिन कहा जा रहा कि उसमें भी ज्यादातर सिख किसान ही थे। यही बात केंद्र सरकार के मंत्री भी कहते रहे हैं। ऐसे में आंदोलन का सिर्फ पंजाब तक सीमित रहना और फिर दिल्ली हिंसा का दाग किसान नेताओं की मुश्किल बन गया था। इसी वजह से किसान नेता पीछे हटे हैं, लेकिन उनके इस कदम से पंजाब भी पीछे न हो जाए, इसलिए लोकल स्तर पर भी समर्थन जुटाया जा रहा है।
कारण जो बन गईं मजबूत आंदोलन की कमजोरियां...
- दिल्ली हिंसा में कमजोर साबित हुई अगुवाई: ट्रैक्टर मार्च के दिन पंजाब के किसान नेताओं की अगुवाई कमजोर साबित हुई। एक दिन पहले तक किसान नेता लाल किला व इंडिया गेट पर जाने से लेकर गणतंत्र दिवस पर टैंकों के साथ ट्रैक्टरों की परेड की बात कहते रहे। यही सोचकर पंजाब से बड़ी संख्या में यूथ दिल्ली बॉर्डर पहुंच गया। हालांकि इसके बाद अचानक दूसरा रूट तय कर लिया है, लेकिन ट्रैक्टर मार्च को उस पर सीमित न रख सके और शांतिपूर्ण आंदोलन पर हिंसा का दाग लग गया। यह कहा जा रहा है कि आंदोलन जिस लेवल तक पहुंचा, ट्रैक्टर मार्च के दिन नेता सही अगुवाई न कर सके।
- नेताओं से नाराज व निराश पंजाब का युवा: 'जमीन न सही, जमीर तो है' कह पंजाब के देश-विदेश में बसे युवाओं ने किसान आंदोलन का खुलकर समर्थन दिया। किसान नेता पहले कहते रहे कि ट्रैक्टर परेड दिल्ली के अंदर होगी, लेकिन एक दिन पहले रूट बदला जिससे युवा निराश हैं। फिर दिल्ली हिंसा व लाल किले पर केसरी झंडे के बाद किसान नेताओं ने उन युवाओं से नाता तोड़ दिया। इससे युवाओं में भारी नाराजगी है। यहां तक कि सोशल मीडिया पर वो भड़ास निकाल रहे हैं। खासकर, किसान नेताओं के मीडिया को दिए बयान व स्टेज के भाषण की वो क्लिप शेयर की जा रही है, जिसमें वो ट्रैक्टर मार्च दिल्ली के अंदर करने से लेकर इंडिया गेट व लाल किला जाने की बात कह रहे हैं। विदेशों में बसे पंजाबी भी इस बात से खफा हैं कि जिन युवाओं ने शुरू से आंदोलन का साथ दिया, जब उनकी गिरफ्तारी हुई तो किसान नेता हाथ खड़े कर गए।
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